विधानसभा सीटों का नए सिरे से परिसीमन होने पर अब्दुल्ला और महबूबा ने किया विरोध

सता रहा है वर्चस्व कम होने का भय !

विधानसभा सीटों का नए सिरे से परिसीमन होने पर अब्दुल्ला और महबूबा ने किया विरोध

जम्मू कश्मीर। निर्वाचन आयोग ने निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए लगभग 25 लाख नए मतदाता जोड़े जाने की बात कही है। इसमें 18 वर्ष की आयु पूरी करने वाले युवाओं के अलावा राज्य में निवास करने वाले गैर कश्मीरी कर्मचारी , छात्र , मजदूर या सामान्य रूप से रहने वाला कोई भी अन्य व्यक्ति मतदाता बन सकेगा जबकि धारा 370 के रहते तक राज्य का स्थायी निवासी ही मतदाता बन सकता था। इस धारा को विलोपित करने के साथ ही लद्दाख को अलग केन्द्र शासित क्षेत्र बनाये जाने के बाद विधानसभा सीटों का परिसीमन नए सिरे से किये जाने का फारुख, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती सहित घाटी के अन्य अलगाववादी नेताओं द्वारा इस आधार पर विरोध किया गया कि जम्मू क्षेत्र में सीटें बढ़ जाने से घाटी का वर्चस्व कम हो जाएगा। 

और अब 25 लाख नए मतदाता जोड़े जाने के फैसले से घाटी के राजनीतिक दलों के पेट में खलबली मच गयी है क्योंकि राज्य के मूल निवासी न होने के कारण वे अलगाववाद के विरोध में राष्ट्रीय एकता और अखंडता के पक्ष में मतदान कर सकते हैं। जम्मू के हिन्दू बहुल क्षेत्र में तो राष्ट्रवादी धारा सदैव बहती रही लेकिन घाटी में शुरू से ही 90 फीसदी से ज्यादा आबादी मुस्लिम होने से उसे देश की मुख्यधारा से काटे रखने में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार कामयाब होते रहे। हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन भी जम्मू में पांव नहीं जमा सके जबकि घाटी में भारत विरोधी माहौल बनाने में उन्हें कामयाबी मिली। 2019 में धारा 370 विलोपित कर जम्मू कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति खत्म कर दी गई। 

जिसके परिणामस्वरूप इस राज्य में जाकर बसने पर लगी बंदिश भी नहीं रही। उस फैसले के बाद से विधानसभा भंग चल रही है। नए परिसीमन के बाद चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग ने मतदाता सूचियों को अंतिम रूप देने के तहत नए मतदता जोड़ने का फैसला लिया। इसका विरोध कर रहे घाटी के नेताओं का कहना है कि 25 लाख नए मतदाता शामिल करने का उद्देश्य राजनीतिक संतुलन भाजपा के पक्ष में झुकाना है। विशेष रूप से घाटी के भीतर अन्य राज्यों के मतदाताओं को मत देने का अवसर मिलने पर नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के अलावा बाकी छोटी – छोटी पार्टियों की चौधराहट के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। अब तक जितने भी चुनाव हुए उनमें घाटी सदैव राष्ट्रीय धारा के विरुद्ध जाती रही है। 

पहले कांग्रेस और फिर भाजपा ने घाटी में पैर ज़माने के काफी प्रयास किये लेकिन वहां के लोगों के मन में जो जहर अलगाववादी नेताओं द्वारा भरा जाता रहा उसके कारण वे राष्ट्रीय पार्टियों को तिरस्कृत करते रहे। परिसीमन के कारण नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी पहले ही परेशान थे और ऊपर से राज्य में रह रहे गैर कश्मीरियों को मताधिकार दिए जाने की खबर आ गई। वैसे अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार का डर अपनी जगह ठीक है क्योंकि जम्मू कश्मीर में अस्थायी तौर पर रह रहे 25 लाख मतदाताओं के नाम जोड़े जाने से राज्य का चुनावी गणित पूरी तरह बदल सकता है। घाटी के अलगाववादी नेताओं को ये बात समझ में आने लगी है कि नए मतदाता उनके चंगुल में फंसने से रहे और उनका मत निश्चित रूप से राष्ट्रवादी शक्तियों को मजबूत बनाने के लिए जायेगा जिससे नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी का वर्चस्व खत्म होना तय है। 

सवाल ये है कि जब कश्मीर घाटी के नेताओं को केंद्र सरकार में मंत्री के रूप में पूरे देश पर राज करने वाली व्यवस्था का हिस्सा बनाया जाता रहा तब वे किस मुंह से घाटी को देश से अलग मानते हैं ? महबूबा मुफ्ती के पिता स्व. मुफ्ती मो. सईद तो 1989 में वी.पी सिंह सरकार में गृहमंत्री तक बनाये गये थे। फारुख और उनके बेटे उमर भी केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। फारुख का नाम हाल ही में ममता बैनर्जी ने राष्ट्रपति हेतु भी आगे बढ़ाया था। कश्मीर घाटी के अनेक लोग देश के अन्य हिस्सों में काम करते हैं। हजारों छात्र भी दूसरे राज्यों में अध्ययनरत हैं। उच्च शिक्षा के संस्थानों में जम्मू कश्मीर के लिए विशेष कोटा रहा है। ऐसे में घाटी के नेता किस हक से गैर कश्मीरी अस्थायी रहवासियों को मताधिकार देने का विरोध कर रहे हैं ? 

रही बात उनके प्रभावक्षेत्र के घटने की तो धारा 370 हटने के बाद कश्मीर घाटी भी देश के अन्य हिस्सों की तरह हो चुकी है , जहाँ कोई भी जाकर रह सकता है। ये बात जरूर है कि आतंकवाद के कारण इस दिशा में अपेक्षानुसार प्रगति नहीं हुई। ये बात भी काबिले गौर है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी भी उम्मीद के मुताबिक नहीं हो पा रही क्योंकि पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी घाटी में रह रहे पंडितों की हत्या कर डर का माहौल बनाये हुए हैं। ये बात सौ फीसदी सही है कि कश्मीर घाटी के मुस्लिम स्वरूप को एकाएक बदले बिना वहां अलगाववाद को समाप्त करना संभव नहीं है। हिन्दुओं और सिखों की जो आबादी फ़िलहाल वहां रह रही है वह भी जब पूर्णरूपेण सुरक्षित नहीं है तब नए लोगों का वहां आकर बसना मौजूदा हालात में तो मुमकिन नजर नहीं आता। 

लेकिन घाटी का राजनीतिक संतुलन नए मतदाताओं को शामिल कर बदलते हुए अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार का वर्चस्व कम किया जा सके तो वहां मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति का श्री गणेश हो सकता है। इसलिए चुनाव आयोग को बिना विरोध की परवाह किये जम्मू कश्मीर में अस्थायी रूप से रह रहे लोगों को मतदान का अधिकार प्रदान कर देना चाहिए। उस दृष्टि से आगामी विधानसभा चुनाव इस समस्याग्रस्त राज्य के साथ ही देश के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण होगा। धारा 370 हटाकर जम्मू कश्मीर को देश के अन्य राज्यों जैसा बना देने के बाद अब वहां ऐसी सरकार की जरूरत ही जो पूरी तरह से अलगाववादी सोच से मुक्त हो। इस साल रिकॉर्ड संख्या में सैलानी घाटी में आये थे जिससे वहां आर्थिक गतिविधियाँ तेज हुई हैं।

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