आयोजकों की आत्मप्रशंसा के साधन बनकर रह गये हैं ऐसे समारोह ...
वर्तमान दौर के सम्मान समारोह,गरिमा की अनदेखी या प्रतिष्ठा का प्रहसन !
आजकल हर क्षेत्र में सम्मान समारोहों की भरमार देखी जा रही है । चाहे वह पत्रकारिता,साहित्य, शिक्षा, सिनेमा, खेल और सामाजिक कार्य हों, परंतु चिंताजनक स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब इन सम्मानों के पीछे कोई स्पष्ट, पारदर्शी और निष्पक्ष मापदंड नहीं होता। जब बिना किसी तय मानदंड या प्रक्रिया के लोगों को केवल अपने फायदे और लिए नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर,पहचान, लोकप्रियता, या समीपता के आधार पर सम्मानित किया जाता है, तो यह न केवल उन व्यक्तियों के लिए अनुचित है जिन्होंने वास्तव में योगदान दिया है, बल्कि पूरे समारोह की गरिमा और उद्देश्य पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा कर देता है ।
सम्मान समारोहों का मूल उद्देश्य होता है — उत्कृष्टता को पहचानना, प्रेरणा देना और समाज को यह दिखाना कि मूल्य आधारित योगदान को सराहा जाता है। लेकिन जब इन समारोहों का स्वरूप पक्षपातपूर्ण या अवसरवादी हो जाए, तो वे केवल सामाजिक मेल-मिलाप या प्रचार के साधन बनकर रह जाते हैं। इससे न केवल प्रतिभावान व्यक्तियों का मनोबल टूटता है, बल्कि युवाओं में यह संदेश जाता है कि वास्तविक मेहनत की बजाय संपर्कों की अहमियत अधिक है।
यह भी देखा गया है कि कई बार आयोजक खुद की प्रसिद्धि या संस्था की ब्रांडिंग के लिए ऐसे पुरस्कारों का आयोजन करते हैं। ऐसे आयोजनों में न तो चयन प्रक्रिया पारदर्शी होती है, न ही निर्णायक मंडल की निष्पक्षता स्पष्ट होती है। नतीजतन, सम्मान अपने अर्थ और महत्व को खोने लगता है।
समाधान क्या है? सबसे पहले, हर क्षेत्र में ऐसे सम्मानों के लिए एक स्पष्ट, सार्वजनिक रूप से घोषित मापदंड तय किया जाना चाहिए। निर्णायक मंडल में विशेषज्ञों और विविधता का समावेश होना चाहिए। चयन प्रक्रिया को यथासंभव खुला और आलोचनात्मक निरीक्षण के योग्य बनाया जाना चाहिए।
सम्मान तब ही सार्थक होते हैं जब वे योग्य को समय पर और न्यायपूर्ण तरीके से मिलें। वरना वे केवल आयोजकों के आत्मप्रशंसा के साधन बनकर रह जाते हैं। यदि सम्मान की गरिमा को बनाए रखना है, तो उसके पीछे की प्रक्रिया को भी उतनी ही गरिमा देनी होगी
-रवि यादव,जी न्यूज 24 (ग्वालियर न्यूज़ 24)
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