डिबेट ऐसी जहां शब्द जिम्मेदार हों, स्वर संयमित हो और उद्देश्य राष्ट्रहित हो...
डिबेट नहीं, दुर्व्यवहार का मंच बनते जा रहे हैं टीवी स्टूडियो !
देश के ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा के नाम पर टीवी चैनलों पर जो कुछ परोसा जा रहा है, वह बहस नहीं बल्कि शोर, अपशब्द और असहिष्णुता का तमाशा बन चुका है। संवैधानिक पदों पर बैठे, जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों के लिए जिस स्तर की भाषा तथाकथित स्कॉलर्स, धर्म-विशेष के ठेकेदारों और विपक्षी दलों के प्रवक्ता प्रयोग कर रहे हैं, वह न सिर्फ लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन है, बल्कि 140 करोड़ नागरिकों के जनादेश का भी अपमान है।
जनप्रतिनिधि को गाली देना केवल व्यक्ति विशेष पर हमला नहीं होता - वह उन करोड़ों मतदाताओं का अपमान होता है, जिन्होंने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेकर उन्हें चुना है। सत्ता से बाहर होने की कुंठा, राजनीतिक खीझ और पार्टी-भक्ति की अंधी दौड़ ने बहस को विचार से हटाकर विषवमन बना दिया है। इन्हें न देश की चिंता है, न समाज की - इनका एकमात्र उद्देश्य है भ्रम फैलाना, माहौल बिगाड़ना और किसी भी तरह सत्ता हासिल करना।
चैनलों की जिम्मेदारी और लोकतंत्र की मर्यादा
टीवी चैनल केवल टीआरपी के व्यापारी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के प्रहरी भी हैं। ऐसे नेताओं और प्रवक्ताओं को मंच देना जो बहस के दौरान अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं, लोकतांत्रिक पतन में भागीदार बनने जैसा है। जो व्यक्ति डिबेट में मर्यादा तोड़ता है, उसे सर्वसम्मत रूप से ब्लैकलिस्ट किया जाना चाहिए - ताकि स्पष्ट संदेश जाए कि असभ्यता को पुरस्कार नहीं मिलेगा।
देश में विचारों की कमी नहीं है। विद्वान, नीति-विशेषज्ञ, सामाजिक चिंतक और जमीनी अनुभव रखने वाले लोग मौजूद हैं - जो पार्टी से ऊपर देश और नारे से ऊपर समाधान की बात करते हैं। डिबेट का मंच उन्हीं के लिए होना चाहिए।
एक जैसे चेहरे, एक जैसी चीख - दर्शक ऊब चुका है
आज हर चैनल पर वही 10–12 चेहरे घूमते नजर आते हैं - कभी इस स्टूडियो में, कभी उस स्टूडियो में। दिनभर बहस, रातभर शोर। न नया तर्क, न नई दृष्टि। नतीजा साफ है - दर्शक चैनल बदल रहा है। झूठ, बदतमीजी और पूर्वाग्रह से जनता परेशान है। यही कारण है कि टीआरपी बढ़ने के बजाय लगातार गिर रही है।
अब बदलाव जरूरी है
देश को शोर नहीं, समाधान चाहिए।
गाली नहीं, गरिमा चाहिए।
तमाशा नहीं, तर्क चाहिए।
टीवी डिबेट को फिर से विचार-विमर्श बनाना होगा - जहां शब्द जिम्मेदार हों, स्वर संयमित हो और उद्देश्य राष्ट्रहित हो। वरना इतिहास गवाह रहेगा कि जब लोकतंत्र को सबसे ज्यादा परिपक्व मंचों की जरूरत थी, तब उसे चीख-पुकार के हवाले कर दिया गया।










0 Comments