नया सियासी सिगूफा: “वोट चोरी” का झूठा नैरेटिव हुआ फैल...
अगर राजनीति सिर्फ़ उकसावे पर टिकेगी, तो देश जलेगा और सत्ता किसी की नहीं बचेगी !
- जब जनादेश को स्वीकारने का साहस न बचे, तो आरोपों की फ़सल बोना ही आसान लगता है...
- इस बार वोट चोरी का फेक नैरेटिव फैला रहे हैं जिसकी वास्तविकता सभी जान चुके हैं...
- राहुल Gen-z को भड़काकर सत्ता पाना चाहते हैं, फिर चाहे देश जले या जनता मरे उन्हें क्या...!!!
राजनीति में हार और जीत लोकतंत्र का स्वाभाविक हिस्सा हैं- मगर जब हार का कारण आत्ममंथन नहीं, बल्कि “षड्यंत्र सिद्धांत” बन जाए, तब समझ लेना चाहिए कि सियासत अपनी परिपक्वता खो चुकी है। इसी क्रम में अब नया शोर “वोट चोरी हो गई!” देश के कानों में भरा जा रहा है।
वास्तविकता सब जान चुके हैं: चुनाव आयोग की पारदर्शी प्रक्रिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की बार-बार जांच तक, हर मंच पर यह सिद्ध हो चुका है कि “वोट चोरी” जैसी बातों का कोई प्रमाण नहीं। मगर, राजनीति में “प्रमाण” से ज़्यादा असर “प्रचार” का होता है,और यही खेल इस बार भी खेला जा रहा है।
Gen-Z को ग़ुस्से का ईंधन बनाना...
युवा पीढ़ी, जो डिजिटल युग में सबसे तेज़ सोचती है, आज सियासत का नया निशाना बन गई है...
राहुल गांधी और उनकी टीम उन्हें “सिस्टम से नाराज़”, “राष्ट्र से असंतुष्ट” और “क्रांति के लिए तैयार” दिखाने का नया प्रयास कर रहे हैं।
पर सवाल है - यह क्रांति किसके लिए? देश के सुधार के लिए, या सत्ता पाने की जल्दबाज़ी में लोकतंत्र को बदनाम करने के लिए?
नेता को जब लोकतंत्र को सुलगाने का शौक हो जाए तो जनता उसे सबक सिखाती है...
यह विडंबना ही है कि जो नेता लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं थकते, वही अब उसकी बुनियाद में अविश्वास का ज़हर घोल रहे हैं।
वोट चोरी का झूठा नैरेटिव फैलाना सिर्फ़ चुनावी रणनीति नहीं, बल्कि जनता के भरोसे पर हमला है।
जनता अब यह समझ चुकी है-“जो जीतता है वह जनादेश का सम्मान करता है, और जो हारता है वह सिस्टम पर सवाल उठाता है।”
जनता की नब्ज़ अब सोशल मीडिया से नहीं चलती...
भारत का मतदाता अब भावनाओं का नहीं, समझदारी का खेल खेलता है।
उसे फेक नैरेटिव से ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता -वह सड़कों, विकास, रोज़गार और स्थिरता को वोट देता है।
इसलिए जो भी नेता युवाओं को भड़काने का खेल खेलेंगे, उन्हें यह याद रखना चाहिए: जनता सब देख रही है, और जनता से बड़ा कोई जनमत नहीं।
वोट चोरी नहीं हुई- हां, नैरेटिव ज़रूर “चोरी” हो रहा है...
लोकतंत्र को चलाने के लिए आरोप नहीं, आत्ममंथन चाहिए।
और अगर राजनीति सिर्फ़ उकसावे पर टिकेगी, तो देश जलेगा, लेकिन सत्ता किसी की नहीं बचेगी।










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