पहलगाम का लहूलुहान सच और क्रिकेट का "जाली" खेल...
क्रिकेट के पिच पर शहीदों के 🩸 लहू से भारी हो गया, क्रिकेट का बल्ला !
चंद दिन पहले ही की तो बात है… पहलगाम की घाटी में आतंकियों ने 26 निर्दोष भारतीयों को कतार में खड़ा कर नाम और धर्म पूछ-पूछकर गोलियों से भून दिया। यह कोई युद्धभूमि नहीं थी, यह कोई दुश्मन का मोर्चा नहीं था ! यह हमारे ही घर की चौखट थी, जहां हमारे ही अपने लहू से ज़मीन लाल हुई। उसी देश के खिलाड़ी, जिनकी धरती से ये आतंक पनपते हैं, उसी देश की टीम,आज हमारे खिलाड़ियों के साथ खेल रही है !
" हमारी शहादत इतनी सस्ती है कि कुछ छक्कों-चौकों के लिए भुला दी जाए "भारत की जनता पूछ रही है-
- क्या यह खेल, खेल से ज़्यादा कुछ और नहीं ?
- क्या हमारे 26 शहीदों की चीखें स्टेडियम की तालियों में दब जाएंगी ?
- क्या यह "जेंटलमैन्स गेम" इतना महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र की अस्मिता और मातृभूमि का अपमान भूल जाएं ?
- क्या आतंक का साथ देने वाले मुल्क के साथ क्रिकेट की साझेदारी मैत्री का पुल है या शहीदों की आत्माओं के साथ विश्वासघात ?
"पहलगाम की लाशें पूछ रही हैं-
- 1. खून से सनी घाटी और बल्ले-बल्ले का खेल, क्या एक साथ शोभा देता है?
- 2. क्या खेल कूटनीति का नाम लेकर आतंकवाद पर पर्दा डाला जा सकता है?
- 3. क्या 140 करोड़ भारतीयों की भावनाओं से बड़ा कोई टूर्नामेंट है?
हमारी मांग स्पष्ट है-
- भारत सरकार और क्रिकेट बोर्ड को इस आत्मघाती खेल कूटनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए।
- आतंक के पोषक मुल्क के साथ मैदान साझा करना शहीदों की शहादत का अपमान है।
- हमें तय करना होगा कि हम क्रिकेट जीतना चाहते हैं या राष्ट्र का स्वाभिमान बचाना।
क्रिकेट के मैदान पर हर चौका-छक्का कुछ पलों की खुशी दे सकता है, लेकिन पहलगाम के शहीदों की याद सदियों तक हमें पुकारती रहेगी।
भारत को अब यह संदेश देना होगा, "खून और खेल एक साथ नहीं चल सकते।"
इसलिए भारत पहले, क्रिकेट बाद में...जय हिन्द वंदे मातरम् !
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