G News 24:अमृतकाल में लोकतंत्र के मूल्यों पर वैचारिक आपातकाल !

 जिस संसद के मंदिर में सजदा कर सांसद जनता की सेवा की सौगंध लेते हैं…

अमृतकाल में लोकतंत्र के मूल्यों पर वैचारिक आपातकाल !

लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक अवसर नई संसद का लोकार्पण लोकतंत्र के मूल्यों पर वैचारिक आपातकाल के अवसर के रूप में बदलता दिखाई पड़ रहा है. जिस संसद के मंदिर में सजदा कर सांसद जनता की सेवा की सौगंध लेते हैं उसी मंदिर को राष्ट्र को समर्पित करने के कार्यक्रम का विरोध विपक्षी एकता के प्रहसन के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है. पहले तो नए संसद भवन के निर्माण के प्रोजेक्ट का ही पुरजोर विरोध किया गया. सुप्रीम कोर्ट से अनुमति मिलने के बाद ही नई संसद बन पाई है. कभी नए संसद परिसर में लगाये गए शेरों की छवि पर विवाद किया गया तो कभी इस पर खर्च हो रही राशि को लेकर विपक्ष ने विरोध की पराकाष्ठा पार की. रिकॉर्ड समय में अब जब नया संसद भवन बन गया है और सावरकर जयंती पर 28 मई को इसका उद्घाटन हो रहा है तो उद्घाटन किसके हाथों हो इसको लेकर राजनीतिक विवाद और उद्घाटन समारोह के बायकॉट का शंखनाद वैचारिक अदावत और अतिवाद की सारी सीमाएं तोड़ता दिखाई पड़ रहा है. विपक्ष का सारा विरोध इस बात पर है कि नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नहीं करना चाहिए बल्कि इसका उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा किया जाना ही संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप होगा. 

नए संसद भवन के विचार से ही विपक्षी विरोध की शुरुआत हुई थी जो उद्घाटन तक कायम है. विपक्षियों को राष्ट्रपति के मान-सम्मान से तो कोई लेना देना नहीं हो सकता क्योंकि अगर ऐसा होता तो बीजेपी की महिला और आदिवासी राष्ट्रपति प्रत्याशी का सभी विपक्षी दलों द्वारा समर्थन किया जाता. राष्ट्रपति के निर्वाचन में वर्तमान राष्ट्रपति के लिए जिस तरीके की बातें कही गई वह सब सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं. विपक्ष का विरोध शायद इस बात पर है कि आजादी के अमृतकाल में बन रही नई संसद का शिलान्यास और उद्घाटन का इतिहास नरेंद्र मोदी के नाम दर्ज हो जाएगा. मोदी विरोध जहां विपक्ष की राजनीति का आधार बन गया हो वहां इतिहास में मोदी के नाम की पट्टिका विपक्ष के सीने पर पत्थर जैसी लग रही है. सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट जिसके अंतर्गत नई संसद का निर्माण हो रहा है वह नरेंद्र मोदी की ही परिकल्पना कही जाएगी. राजपथ का नाम बदलकर ‘कर्तव्यपथ’ करने का इतिहास भी प्रधानमंत्री ने ही रचा है. इंडिया गेट पर पहली बार सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा का अनावरण भी आजाद भारत में इतने लंबे समय बाद नरेंद्र मोदी के हाथों ही संभव हो सका है. गुलामी की मानसिकता और गुलामी के प्रतीकों को बदलने की योजना के अंतर्गत ही नया संसद भवन बनकर तैयार हुआ है. 

नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में ऐसे जितने भी गुलामी के प्रतीकों को बदला जा रहा है वह उन ताकतों को पसंद नहीं आ रहा है जो अब तक देश में शासन संचालन का नियंत्रण कर रहे थे. गुलामी के प्रतीक कुछ लोगों की आस्था के प्रतीक बन गए हैं. उन प्रतीकों को जो भी खंडित कर रहा है वह पुराने राजनीतिक कर्णधारों के वारिसों को पसंद कैसे आ सकता है ? राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संसद के संवैधानिक अधिकार और कर्तव्य को लेकर उद्घाटन राष्ट्रपति से कराने के राजनीतिक बयानों का संवैधानिक रूप से उतना महत्व नहीं है लेकिन इसके राजनीतिक संदेश निश्चित रूप से हैं. लोकसभा के सेक्रेटरी जनरल की ओर से नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह के आमंत्रण पत्र वितरित किए गए हैं. संसद भवन का प्रशासनिक नियंत्रण लोकसभा सचिवालय के पास ही होता है. इस दृष्टि से लोकसभा स्पीकर उद्घाटन समारोह के मेजबान कहे जाएंगे. किसी भी मेजबान को इस बात का अधिकार होता है कि वह कार्यक्रम का मुख्य अतिथि किसे आमंत्रित करे. इस बारे में किसी भी नियम कानून या संविधान के अंदर कार्यक्रम के आयोजन के लिए मुख्य अतिथि का कोई प्रोटोकॉल अभी तक तो निर्धारित नहीं है. नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने वाले कांग्रेस समेत 19 विपक्षी दलों का कहना है कि उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए. 

राहुल गांधी भी इसी तरह की बात कह रहे हैं. राहुल गांधी ने कहा है कि संसद भवन ईटों से नहीं संवैधानिक मूल्यों से बनता है. उन्होंने अहंकार की बात भी अपने ट्वीट में की है. आजादी के बाद नया संसद भवन भले ही पहली बार बन रहा हो लेकिन राज्यों में विधान सभाओं के नए भवन का निर्माण कई जगह हुआ है. इन राज्यों में विधानसभा भवनों का लोकार्पण किसी सुनिश्चित प्रोटोकाल के तहत नहीं किया गया है. कहीं-कहीं राष्ट्रपति तो कहीं राज्यपाल तो कुछ राज्यों में नई विधानसभा भवनों का लोकार्पण मुख्यमंत्रियों द्वारा भी किया गया है. विधानसभा भवन के नामकरण को लेकर भी हर राज्य में अलग-अलग ढंग से काम किया गया है. किसी भी राज्य में किसी भी विधान भवन या संसद भवन का नामकरण किसी भी राष्ट्रपति के नाम करके राष्ट्रपतियों को सम्मान देने की परंपरा अब तक क्यों नहीं डाली गई इस बारे में भी कांग्रेसियों को बताना चाहिए. मध्यप्रदेश में नए विधानसभा भवन का उद्घाटन तीन अगस्त 1996 को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा ने किया था. विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी थे. इस दौरान राज्य के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे. 

मध्यप्रदेश के नए विधान भवन के उद्घाटन समारोह में इस भवन के नामकरण को लेकर भारी विवाद हुआ था. सदन में बीजेपी के नेता प्रतिपक्ष विक्रम वर्मा ने नए विधान भवन का नामकरण इंदिरा गांधी के नाम से करने के प्रयासों का पुरजोर विरोध किया था. उन्होंने तो लगाई गई उद्घाटन पट्टिका को ही उखाड़ने की कोशिश की थी. कांग्रेस की सरकार और स्पीकर ने विधानसभा भवन का नाम इंदिरा गांधी के नाम पर रखने की जिद की थी. उस समय संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक मूल्यों का शायद कांग्रेस को स्मरण नहीं था. मध्यप्रदेश के विधानसभा भवन का नाम आज भी इंदिरा गांधी विधान भवन चल रहा है. मध्यप्रदेश में 2003 के बाद से ही कमोबेश बीजेपी की सरकार काम कर रही है. किसी भी विधानसभा भवन का नाम किसी राजनीतिक दल के नेता के नाम से रखे जाना लोकतांत्रिक मूल्यों की अच्छी परंपरा तो नहीं कही जा सकती. जो कांग्रेस पार्टी बीजेपी को लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों का पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रही है उसे शायद यह नहीं भूलना चाहिए कि एमपी की बीजेपी सरकार ने अभी तक विधानसभा भवन का नाम नहीं बदला है. 

अभी भी यह भवन इंदिरा विधान भवन के रूप में स्थापित है. इससे तो ऐसा लगता है कि बीजेपी लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति ज्यादा समर्पित है. कांग्रेस की परम्परा को देखते हुए तो वर्तमान सरकार अगर नए संसद भवन का नामकरण भी कर दे तो इसे परम्परा का पालन ही कहा जाएगा. नए संसद भवन का उद्घाटन 28 मई को नरेंद्र मोदी के हाथों होगा. कम से कम इतनी तो खुशी की बात है कि कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दल अपने विरोध में इस बात क़ा अब ज़िक्र नहीं कर रहे हैं कि वीर सावरकर की जयंती पर नए संसद भवन का उद्घाटन क्यों किया जा रहा है?  राहुल गांधी तो अभी तक हर मोर्चे पर यही बयान देते थे कि वे माफी नहीं मांगेंगे वे सावरकर नहीं है, गांधी कभी माफी नहीं मांगते. जब से कांग्रेस और राहुल गांधी को यह समझ आ गया कि सावरकर के खिलाफ उनका बयान विपक्षी एकता को तार-तार कर देगा तब से उन्होंने इस पर चुप्पी साध ली है. सावरकर की जयंती पर नए संसद भवन का राष्ट्र को समर्पण भारत में नई वैचारिक धारा की पुनर्स्थापना है. विपक्षी विरोध के पीछे शायद यही सोच काम कर रही है कि इतने लंबे समय तक देश का शासन चलाने के बाद भी नया संसद भवन बनाने की परिकल्पना तक नहीं की जा सकी. 

नरेंद्र मोदी ने न केवल नए संसद भवन की परिकल्पना की बल्कि एक रिकॉर्ड समय में उसका निर्माण भी पूरा कराया. देश में बड़े-बड़े निर्माण के ऐसे इतिहास कम ही देखने को मिलते हैं, जब एक ही जननेता द्वारा शिलान्यास भी किया जाए उसी जननेता द्वारा उसका लोकार्पण भी किया जाए. लोकतंत्र विचार से विचार को मात देने और संवाद से सरकार संचालन की व्यवस्था है. नए भवन के उद्घाटन समारोह के विरोध की राजनीति विरोध का अतिवाद मानी जाएगी. आज भले ही प्रधानमंत्री के रूप में कोई भी उसका उद्घाटन कर रहा हो लेकिन संसद भवन सदियों के लिए इस देश की धरोहर है. राजनीति कोई भी हो लेकिन देश की धरोहर के विरोध की राजनीति कतई स्वीकार नहीं की जा सकती. सरकार की ओर से विपक्षी दलों से आग्रह किया जाना चाहिए कि इस ऐतिहासिक अवसर पर लोकतंत्र के स्वस्थ और सशक्त स्वरूप का दिग्दर्शन दुनिया को कराने के लिए सब एक साथ आएं. सरकार को अपने प्रयास में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहिए. 

संसद भवन के उद्घाटन अवसर पर एक और ऐतिहासिक उपलब्धि सार्वजनिक की जा रही है. जब आजादी के समय सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्वीकार किए गए राजदंड सिंगोल को संसद में लोकसभा स्पीकर के चेयर के साथ प्रदर्शित किया जाएगा. राजदंड को निष्पक्ष न्याय का प्रतीक माना जाता है. अभी तक इसे संग्रहालय में रखा गया था. यह पहली बार होगा कि इसे संसद भवन में अध्यक्ष के साथ स्थापित किया जा रहा है. गुलामी से मुक्त भारत के स्वदेशी प्रतीकों में इस प्रतीक का ऐतिहासिक महत्व है. देश की संसद सियासत का अखाड़ा बनती जा रही है. संसद संवाद और विचार विमर्श से ज्यादा बंद रहने का रिकॉर्ड बनाती रही है. नया संसद भवन संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए नए आदर्श स्थापित करे ऐसी लोककामना है.

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