संविधान पर नहीं इतिहास पर युद्ध

हम संविधान पर नहीं इतिहास पर जंग लड़ रहे...

संविधान पर नहीं इतिहास पर युद्ध


युद्ध शांति का विलोम शब्द है ,लेकिन यदि युद्ध हो तो शान्ति का क्या अस्तित्व ? शायद यही फार्मूला आजकल देश के भाग्यविधाताओं को रास रहा है . वे शान्ति से पहले युद्ध को तेज करने में लगे हैं और ये युद्ध भी बाहर के शत्रुओं से नहीं बल्कि घर के भीतर अपनों से है और इसमें हथियार बने हैं बेचारे दिवंगत राष्ट्रीय हीरो .ये युद्ध समाप्त होने के बजाय दिनोंदिन तेज हो रहा है .आज हम  संविधान पर नहीं इतिहास पर जंग लड़ रहे हैं। पिछले सात साल में हमारी जंग का विषय राजनीति का एक घराना रहा है .इस घराने को आभाहीन करने के लिए कथित रूप से दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक दल और उसकी सत्ता लगी हुई है .घराना कौन सा है आप प्रबुद्ध पाठक जानते हैं इसलिए उसका जिक्र करना जरूरी नहीं है .इस घराने को आभाहीन बनाने के लिए हमारे राष्ट्रवादियों को कभी सरदार पटेल की प्रतिमा की जरूरत पड़ती है तो कभी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की .सब मिलकर दिवंगत नेताओं पर अहसान करने में लगे हैं .मुमकिन है कि ऐसा होते देख दिवंगत नेताओं की आत्मा गदगद भी हो ,लेकिन ये भी हो सकता है उनकी आत्माएं खिन्न हों। 

चूंकि आत्माओं से संवाद का कोई आधिकारिक तरीका नहीं है इसलिए नतीजे पर पहुंचना कठिन है.लेकिन ये बात आसानी से समझी जा सकती है कि एक राजनीतिक घराने से छाया युद्ध लड़ रही एक पार्टी ,एक सरकार बौरा गयी है .सरकार के पास मुद्दे नहीं हैं अपनी उपलब्धियों के जरिये लम्बी लकीर खींचने के लिए .सरदार पटेल की प्रतिमा पर्यटनके काम रही है और नेताजी की प्रतिमा पर्यटकों को कितना आकर्षित कर पायेगी ,कहा नहीं जा सकता .लेकिन ये प्रतिमाएं देशवासियों के मन में बनीं उन तमाम प्रतिमाओं की स्मृतियों को धुंधला तक नहीं कर पा रहीं हैं जो देश  के इतिहास का अभिन्न हिस्सा हैं। हाल ही में दिल्ली के इंडियागेट से 1971  में प्रज्ज्वलित की गयी अमर जवान ज्योति को विलोपित कर वहां की एक खाली छतरी में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आदमकद प्रतिमा लगाकर देश इतरा रहा है. लोग इतरा रहे हैं ,कहा जा रहा है कि नेता जी की दोबारा प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है ,लेकिन कांग्रेस के शशि थरूर ने आंकड़े देकर बता दिया कि नेताजी की उपेक्षा की बात निराधार और भ्रामक है । 

थरूर का दावा है कि देश में इस समय नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नाम से 164  संस्थान चल रहे हैं और वे सभी मौजूदा सरकार के सत्ता में आने से पहले के हैं .अब थरूर के गुरूर को तोड़ कर दिखाए कोई ? नेताजी सुभाषचंद्र बोस को दोबारा प्राण-प्रतिष्ठा की जरूरत नहीं है. यदि होती तो उनका बंगाल पिछले दिनों आपका समर्थन कर आपको सत्ता में पहुंचा देता.जाहिर है कि नेताजी हों या सरदार पटेल वे किसी के लिए सत्ता की सीढ़ी बन ही नहीं सकते.और ऐसी तमाम कोशिशें भी निंदनीय हैं राजनीति,देशकाल और परिस्थितियों के अनुसार चलती है.मुमकिन है कि राजनीति में जैसी साजिशें आज हो रहीं हैं तब भी होती हों,लेकिन वे नजर नहीं आतीं.आजादी के ठीक पहले और बाद के फ्रेम में आज की राजनीति को रखकर देखिये आपको सबकुछ समझ जाएगा । आज की राजनीति में जैसे मार्गदर्शक मंडल हैं पहले की राजनीति में नहीं थे.आज की राजनीति में जैसी दुर्दशा माननीय लालकृष्ण आडवाणी की है वैसी कभी नेताजी या सरदार पटेल की नहीं हुई. 

जैसे आज की सत्तारूढ़ पार्टी के वरिष्ठ और नामचीन्ह नेताओं को घर बैठा दिया गया वैसा पहले कभी नहीं हुआ .आज की राजनीति में जिन नेताओं की कथित उपेक्षा की गगरौनि गायी जा रही है वे सबके सब कांग्रेस के नेता थे ,उनकी चिंता दूसरे दलों के नेताओं को आजादी के सत्तर साल बाद आखिर क्यों हो रही है ? इन नेताओं के त्याग,तपस्या के मुकाबले आज के नेताओं के पास दिखने के लिए कुछ है ही नहीं। हम गड़े मुर्दे उखाड़ने के बजाय देश की उस 80  करोड़ आबादी की बात नहीं करते जो मुफ्त के अन्न पर जीने के लिए विवश है .आपकी उपलब्धि तब होती जब आप बीते सात साल में इस मुफ्तखोर बनाई जा रही आबादी को कम कर पाते.अर्थात   जिस गरीबी को पिछली सरकारें नहीं हटा पायीं आप उसे और बढ़ाने में लगे हैं .गणतंत्र दिवस की झांकियों में आपकी उपलब्धियों में काशी का कॉरिडोर है लेकिन विज्ञान और कृषि के क्षेत्र में कुछ नहीं .

कभी-कभी लगता है कि बीते सात साल में पिछले सत्तर साल की तमाम उपलब्धियों पर पानी फेर दिया गया है .जिस गणतंत्र यानि संविधान की बात हम करते हैं  उसे ठेंगा दिखाया जा रहा है. सम्वैधानिक संथाओं को पालतू  जानवरों जैसा बना दिया गया है .भारत का संविधान और उसमें किये गए तमाम प्रावधान आज की सरकार की आँखों के लगातार किरकिरी की तरह चुभ रहे हैं .सरकार धर्मनिरपेक्षता को गैरजरूरी मानती ही नहीं बल्कि अपने आचरण से कर के दिखाती भी है   .हमारे भाग्यविधाता मंदिर-मंदिर घूमते हैं लेकिन उन्हें मस्जिदों और गिरजाघरों से अनुख [एलर्जी] है.वे विदेश में जाकर पोप के सामने नतमस्तक होते हैं लेकिन देश में आते ही ' अवॉइड विद मी जैसी एक आर्त प्रार्थना को पारम्परिक सैन्य समारोह से हटवा देते हैं । दुर्भाग्य ये है कि इन मुद्दों पर हमारे यहां खुलकर बहस नहीं होती. बहस के मंच सूने होते जा रहे हैं और जहां बहस होती है वहां विचारक नहीं माउथपीस जैसे लोग बैठा दिए जाते हैं .या तो धुर विरोधी या फिर धुर समर्थक .नीर-क्षीर विवेक वाली नस्ल अब किसी काम की नहीं रही .

दुनिया कहाँ से कहाँ जा रही है लेकिन हम गरीबों के उत्थान के बजाय उन्हें मुफ्त अन्न बाँट कर अपना लोक-परलोक सुधारने में लगे हैं .लगता है जैसे अब सरकारें पुण्य करने के लिए ही बनाई जाती हैं .गरीबी,बेरोजगारी से संघर्ष उनकी प्राथमिकता में है ही नहीं . जाने ये तस्वीर कब बदलेगी ? देश की राजनीति में जब तक घृणा,वैमनस्य और संकीर्णता मौजूद है तब तक सवैधानिक व्यवस्थाओं को बनाये रखना बहुत कठिन चीज है. ये देश संविधान के प्रावधानों से चलना चाहिए कि मंदिरों,मस्जिदों के मुद्दों को लेकर .गलियों को गलियारे बनाकर देश का विकास नहीं हो सकता .हमारे असली मंदिर आज भी हमारे खेत-खलिहान हैं उनकी फ़िक्र की जाना चाहिए ,लेकिन हो उलटा रहा है .हमारे भाग्य विधाता खेतों-खिलहानों में जाने के बजाय अपने पाप धोने के लिए गंगा में डुबकियां लगा रहे हैं ,गलियारों की प्रदक्षिणा कर रहे हैं .ये आपके व्यैक्तिक कार्य हैं,कभी भी बिना कैमरे  लगाए किये जा सकते हैं .आप देश के समक्ष मौजूद असली चुनौतियों का सामना कीजिये .ध्यान रखिये कि हर कोई भगीरथ नहीं बन सकता .कुल मिलकर हमारा गणतंत्र अमर रहे

- राकेश अचल

Comments