जीवन की नाव…
जन्म है नाव में बैठना,
मृत्यु है नाव से उतर जाना,
बीच में सब मित्रताएँ हैं।
शत्रुताएं हैं।
हम कितना फैलाव कर लेते हैं।
हम कितना पसारा कर लेते हैं।
कितनी आसक्तियां कितने मोह,
किस-किस भांति हम एक दूसरे से बंध जाते हैं।
एक दुसरे को बांध लेते हैं।
कितने बंधन,
कितना कष्ट पाते हैं उन बंधनो से,
और यह जानते हुए कि मौत आती होगी।
यह लगी नाव किनारे, यह लगी नाव किनारे।
और उतर जायेंगे बटोही।
न जन्म के पहले उनसे हमारा कुछ संबंध था।
न मृत्यु के बाद कोई संबंध रह जायेगा।
न हम उन्हें पहले जानते थे।
नाव में बैठने के पहले,
न नाव से उतरने के बाद,
न फिर कभी जानेंगे।
मगर थोडी देर का,
घड़ी भर का साथ,
और हमने कितना संसार रच लिया।
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