भारतीय लोक संस्कृति में बैजू बावरा का योगदान

 संगीत क्षेत्र में नई विधा को जन्म देकर बढ़ाया अपना मान…

भारतीय लोक संस्कृति में बैजू बावरा का योगदान


सोलहवीं सदी भारतीय लोक संस्कृति विरासत एवं संगीत साहित्य में एक अलग मुकाम रखती है। इस काल में लोक संस्कृति, संगीत और साहित्य को भरपूर बढ़ावा मिलने के साथ ही उन्हें  राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ। इसका सबसे बड़ा सुखद नतीजा यह सामने आया कि क्षेत्रीय लोक संस्कृति, संगीत कला क्षेत्र में उन्नति के नए नए द्वार खुले। भारतीय लोक संस्कृति एवं संगीत क्षेत्र में देशी, क्षेत्रीय संगीत की पूछ परख बढ़ी गायन वादन, संगीत क्षेत्र में नए नए प्रयोग किए जाने लगे। जब क्षेत्रीय लोक संस्कृति, संगीत साहित्य की पूछ परख बढ़ी तो उसका परिणाम यह सामने आया कि क्षेत्रीय लोक गायकों को नई पहचान, सम्मान मिलना प्रारंभ हो गया जिसके वह सौ फीसदी हकदार थे। भारतीय लोक संस्कृति विरासत हो अथवा भारतीय संगीत क्षेत्र रहा हो सोलहवीं सदी में चमकता दमकता सितारा लोक गायक बैजू बावरा  आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। भारतीय संगीत क्षेत्र में अपनी पहचान स्थापित करने वाले संगीतज्ञ तानसेन के समकालीन संगीत सूर्य बैजू बावरा द्वारा भारतीय लोक संस्कृति विरासत तथा भारतीय संगीत विधा में प्रद्वत महत्वपूर्ण योगदान को आज किसी भी स्तर पर भुलाया नहीं जा सकता है। 

लोक गायक, संगीतज्ञ बैजू बावरा ने संगीत साहित्य की सेवा ही नहीं की बल्कि नए नए रागों का अविष्कार कर अपने आप को लोक संस्कृति विरासत एवं संगीत साहित्य में अमर कर लिया। यही नहीं बैजू बावरा द्वारा स्वयं रचित रचनाओं और गायन के माध्यम से की गई प्रस्तुतीकरण बैजू बावरा की धार्मिक भावना भगवान श्री कृष्ण के प्रति आराधना उपासना को भी प्रकट करती है। बैजू बावरा द्वारा रचित ध्रुपद आज भी पर्याप्त संख्या में संगीत साहित्य में सहज उपलब्ध हैं। जिनके माध्यम से बैजू बावरा की संगीत शैली और उनके संगीत धारण संगीत प्रेम उजागर होता है। ध्रुपद गायन में बैजू बावरा ने महारथ हासिल की हुई थी जिसके कारण बैजू बावरा की एक अलग पहचान हमेशा हमेशा के लिए स्थापित हुई। संगीत सूर्य बैजू बावरा ने अपने फन का जौहर दिखाते हुए नए-नए ध्रुपद पदों की रचना ही नहीं कि अपितु ध्रुपद गायकी प्रचार प्रसार में तत्परता को भी प्रदर्शित किया। 



इसका परिणाम यह सामने आया की ध्रुपद शैली दूर-दूर तक प्रचलन में आ गई। संगीत सम्राट बैजू बावरा के नए रागों में गूजरी टोड़ी, मंगल गूजरी, मृगरंजनी टोड़ी आदि सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ है। बैजू बावरा ने नवीन होरी गायकी का सृजन कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर संगीत क्षेत्र में नई विधा को जन्म देकर गायकी क्षेत्र में अपना मान सम्मान बढ़ाया। आज भी बैजू बावरा द्वारा रचित पद भारतीय संगीत साहित्य में उपलब्ध है जो बैजू बावरा की याद को वक्त बेवक्त ताजा करने का सबब बने हुए हैं। मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन के साथ सूफी मत के प्रादुर्भाव होने से उत्पन्न हुई तत्कालीन परिस्थितियों के मद्देनजर एवं भारतीय संगीत के समक्ष आई नई चुनौती का सामना करते हुए यानी काल और परिस्थिति अनुसार बैजू बावरा ने अपने गायन वादन में बदलाव लाते हुए क्षेत्रीय गीत-संगीत का मिश्रण कर आमजन के समक्ष ऐसी प्रस्तुति दी जिसके चलते देशी संगीत लोगों के सिर चढ़कर बोला। यही सब वह मिले-जुले कारण है जिसके चलते आज भी बैजू बावरा भारतीय संगीत साहित्य में अपना स्थान प्रमुखता से दर्ज कराएं हुए हैं। 

यह बात अलग है कि जिस सम्मान का वह हकदार था उससे वह वंचित रहा है। बावजूद इसके तमाम तरह की परेशानियों क्रियाओं प्रतिक्रियाओं  की मार झेलता बैजू बावरा आज भी भारतीय जन मानस में अपनी एक अलग प्रकार से पहचान कायम रखने में सफल रहा है। उम्मीद रखते है कि आगे आने वाले समय में बैजू बावरा अपनी पहचान को और अधिक अमरता प्राप्त करेगा। कहा जाता है कि आशा से आसमान टिका हुआ है इसी आशा और विश्वास में हमने भी आशा का दामन ना छोड़ा है और ना कभी छोड़ेंगे। फिलवक्त बैजू बावरा द्वारा भारतीय संगीत क्षेत्र में प्रद्वत योगदान के मद्देनजर विद्वान डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त द्वारा बैजू बावरा की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए वर्णित निम्न तथ्यों को  सामने रखते हुए बैजू बावरा को सलाम करते हैं जिसका चन्देरी की पवित्र माटी से जन्म जन्म का नाता है। डॉ. गुप्त ने लिखा है कि तोमर काल में रचित विष्णुपद के विष्णु पदों और बैजू बावरा के ध्रुपद की लोक भाषा और देसी संगीत बुंदेली ही नहीं भारतीय संस्कृति को भी बचा लिया।


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