किसानों की ब्यथा...
किसानों की ब्यथा...
कर्म के शीशों पर चढ़ गई है धूल राजनीति की,
हर तस्वीर धुंधली है जहां में अन्न दाता की ।
निकलता हल नहीं हल के रखवालों का,
सत्ता की खातिर अभी तक जारी दौर बातों का ।
ठिठुर रहा अन्न दाता हैं सड़कों पर ...,
अब सड़क ही है आशियाना इन किसानों का।
विपक्षी लक्ष्य है साधे,
लिए कंधा किसानों का।
फसल खेतों में और अन्न दाता हाइवे है ठिठुर रहा,
खत्म कराने धरना नेताओं की कोशिशे रही बेकार।
जब तक दूर न होगा भ्रम,
कहीं मर न जाएं बेचारे।
बड़े भोले-भाले हैं ये अन्न दाता हमारे,
सभी हुए हैं राजनीति का शिकार ये किस्मत मारे।
राजनीतिक दल भोले-भाले अन्न दाता को धरनों में बैठा कर रहे हैं अपना उल्लू सीधा।
विरोधी जो प्रगति के किसानों से नहीं जिनका कोई वास्ता।
वे नहक ही लगाके बैठे हैं किसानों के सच्चे हमदर्द होने का तमगा।
घेरकर राजधानी को जलाया है मतलब का चूल्हा,
इनके कारण हर दिल्ली वासी का दम है फूला।
अपने शब्दों के तीर अभी तरकश में ही रहने दो।
जो भरते पेट भारत का एकबार उनके मन की भी होने दो।
जहाँ जमघट विरोधो का वहां सहयोग क्या तकना ।
अभी बने तुम्हारे जो सहारे है, उन्हे महलों में है रहना।
उठाकर फिर बिठाएंगे तुम्हे उठने नहीं देंगे।
तुम्हे सरकार से तुमहारी कभी कहने नहीं देंगे।
छोड़ो उन सहारो को जिन्हे मतलब नहीं हल से तुम्हारे ।
इसलिए उठो हे धरती पुत्रों तुम्हें जो चाहिए वो मिलेगा हल से तुम्हारे।
Comments
Post a Comment