सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का दम

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का दम

अयोध्या में बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों राम मंदिर का शिलान्यास सिर्फ मंदिर आंदोलन का उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचना भर नहीं है। इस आंदोलन का लक्ष्य भी मंदिर बनवाने तक सीमित नहीं था। यह लक्ष्य था देश की राजनीतिक मुख्यधारा को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विचार के इर्दगिर्द संचालित करने का। इस बड़े सपने के संदर्भ में देखें तो खुद को एक सांस्कृतिक संगठन के रूप में परिभाषित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक इकाई के तौर पर बीजेपी ने जो तीन बड़े लक्ष्य अपने सामने रखे थे, अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण उनमें सिर्फ एक था। बाकी दो लक्ष्य थे समान आचार संहिता और अनुच्छेद 370 का खात्मा। 

यह भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के राजनीतिक मुख्यधारा बन जाने का ही सबूत है कि एनडीए-2 के रूप में अपनी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाने के एक-सवा साल के अंदर ही बीजेपी इन तीनों लक्ष्यों को साध लेने का दावा करने की स्थिति में आ गई है। कोरोना के भीषण प्रकोप के बीच भी शिलान्यास का यह कार्यक्रम संपन्न होना बताता है कि सरकार मंदिर निर्माण को अपने अंतिम बिंदु तक ले जाने में किसी भी तरह का विघ्न नहीं आने देगी। शिलान्यास के लिए 5 अगस्त की तारीख तय करने की और भी वजहें हो सकती हैं, लेकिन एक वजह जगजाहिर है कि जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत मिला विशेष दर्जा साल भर पहले इसी तारीख को समाप्त किया गया था। एक बार में तीन तलाक कहने की कुप्रथा को दंडनीय अपराध घोषित करके यह सरकार समान आचार संहिता की तरफ भी एक ठोस कदम आगे बढ़ा चुकी है। 

कुल मिलाकर देखें तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की मजबूत जमीन तैयार करके सत्ता हासिल करने और फिर उसके इर्दगिर्द एक बड़ा सामाजिक मतैक्य निर्मित करने में बीजेपी दुनिया की अन्य समान धाराओं के मुकाबले कहीं ज्यादा सफल हुई है। इसकी शुरुआत 1979 में शिया बहुल ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति से मानी जाती है, जिसकी काट के रूप में सऊदी अरब में वहाबी उभार देखने को मिला। इसने दुनिया के बड़े हिस्से को अपनी जद में लिया और इसके अगले कदम के रूप में अल कायदा और आइसिस जैसे संगठन उभर आए जिन्होंने राष्ट्र का चक्कर ही पीछे छोड़ दिया। 

यूरोपीय देशों में, खासकर जर्मनी में क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक यूनियन जैसे प्रयोग धीरे-धीरे अपनी धार्मिक पहचान छोड़ते गए और सरकार में आते-जाते रहने के बावजूद उनकी स्थिति अब देश की बाकी पार्टियों जैसी ही है। इसके विपरीत भारत में इस धारा का प्रभाव राजनीति, फिल्म, मीडिया और तकनीक से लेकर जीवन के हर क्षेत्र में देखने को मिल रहा है। यही कारण है कि सत्ता हासिल करने के बाद बीजेपी को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अजेंडा आगे बढ़ाने में किसी अड़चन का सामना नहीं करना पड़ा। हालांकि अब इसके सामने कुछ चुनौतियां जरूर खड़ी हो रही हैं। उपेक्षित पहचानों की दावेदारी और केंद्र-राज्य टकराव आने वाले दिनों में इसकी परीक्षा ले सकते हैं। देखना है, इसके लिए जरूरी लचीलापन यह धारा ईजाद कर पाती है या नहीं।

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