विवादों से घिरा विश्व स्वास्थ्य संगठन !

विवादों से घिरा विश्व स्वास्थ्य संगठन !

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सदस्य देशों ने अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप द्वारा 30 दिन के अंदर संगठन के रवैये में उल्लेखनीय सुधार लाने की चेतावनी को अलग से कोई तवज्जो नहीं दी, लेकिन कोरोना वायरस से उपजी महामारी को लेकर ग्लोबल रिस्पॉन्स और संगठन की भूमिका की जांच का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। संगठन की टेली-बैठक के बीच ही ट्रंप ने डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक टेड्रोस घेब्रेयेसस के नाम लिखा चार पन्ने का वह पत्र जारी कर दिया था, जिसमें कहा गया है कि यह संगठन अगले एक महीने में चीन पर अपनी निर्भरता खत्म करने और स्वतंत्र रुख अपनाने के ठोस संकेत दे, वरना वे न केवल संगठन की फंडिंग रोकने के अपने अस्थायी फैसले को स्थायी रूप देंगे बल्कि उसकी सदस्यता भी छोड़ देंगे।

बहरहाल, इस विवाद में किसी नतीजे पर न पहुंचकर अगर हम इसकी बारीकियों पर गौर करें तो इस पूरे प्रकरण में तीन बड़े मुद्दे उभर कर आते हैं। पहला, क्या महामारी की समझ, इसके इलाज और रोकथाम से संबंधित कोई बड़ा सवाल इस जांच के नतीजों पर निर्भर करता है? यानी, क्या कोई जरूरी सूचना न मिल पाने से इसकी दवा खोजने या टीका बनाने का काम अटक रहा है? ऐसा हो तो बाकी बातें एक तरफ रखकर सभी आवश्यक सूचनाओं को सार्वजनिक करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। दूसरा सवाल यह है कि वायरस की उत्पत्ति, उसके मानव शरीर में आने और संक्रमण फैलने को लेकर सूचनाएं जिस तरह से आईं और उनके अनुरूप कार्रवाई का जो ढांचा तय किया गया, उसमें चीन सरकार और डब्ल्यूएचओ के स्तर पर क्या किसी तरह की लापरवाही बरती गई, या सूचना छिपाने का सचेत प्रयास किया गया?

यह भी कि अगर ऐसा हुआ तो क्या इसके पीछे कोई खास मंतव्य था? तीसरा अहम सवाल दुष्टतापूर्ण इरादे से जुड़ा है। यानी यह कि क्या किसी सरकारी प्रयोगशाला में एक रणनीति के तहत इस वायरस को बनाया और छोड़ा गया, जैसा कि षड्यंत्रशास्त्री बोल रहे हैं और खुद अमेरिकी राष्ट्रपति इसे बार-बार अपने बयानों में दोहरा रहे हैं! वैज्ञानिकों की तरफ से इस वायरस के मानव निर्मित न होने की बात एकाधिक मंचों से कही जा चुकी है, फिर भी सवाल उठने बंद नहीं हुए तो स्वतंत्र, पारदर्शी और विश्वसनीय जांच ही किसी स्पष्ट नतीजे तक पहुंचने का अकेला तरीका है।

वैश्विक महामारियां हर सदी में एक-दो बार आती रही हैं, लेकिन अब तक इन्हें ईश्वर या प्रकृति के कोप की तरह ही लिया जाता रहा है। मनुष्य की भूमिका इस मामले में एक नई चीज है, जिसे लेकर लोगों में इत्मीनान आना जरूरी है। यहां यह याद दिलाना भी समीचीन होगा कि जैव हथियारों के विकास और भंडारण पर नियंत्रण के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि (बायोलॉजिकल ऐंड टॉक्सिन वेपंस कन्वेंशन) 1975 में ही हो चुकी है, पर अबतक यह कागजी संधि ही बनी हुई है। अच्छा हो कि इस झटके में ही इस संधि के जमीनी अमल और संभावित जैव हथियारों की सतत जांच का एक ग्लोबल ढांचा खड़ा कर लिया जाए।

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