न्याय की चौखट पर संवैधानिक मर्यादाओं का उड़ाया जा रहा है मखौल...
“ शपथ… संविधान की और अंबेडकर की मूर्ति पर बवाल ! यह न्याय है या नाटक ! ”
जिन्होंने संविधान से रोटी खाई, वही आज संविधान निर्माता पर राजनीति कर रहे हैं !
न्याय की देवी जहां आंखों पर पट्टी बांधकर निष्पक्षता का प्रतीक मानी जाती है, आज वहीं न्यायालय की चौखट पर संवैधानिक मर्यादाओं का मखौल उड़ाया जा रहा है !
विडंबना देखिए, जिन अधिवक्ताओं के हाथों में संविधान की धाराएं न्याय की मशाल बननी चाहिए थीं, वे आज उसी संविधान के शिल्पी डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा को मुद्दा बनाकर आपसी नूरा कुश्ती में उलझे हैं।
बाबासाहेब अंबेडकर वो शख्सियत हैं जिनकी कलम ने इस देश को वह दस्तावेज़ दिया, जिसके बूते पर ही आज ये अधिवक्ता “माय लॉर्ड” कहने का अधिकार रखते हैं।
फिर वही अधिवक्ता आज उसी व्यक्ति की प्रतिमा को अदालत के प्रांगण में लगने देने से कतराते हैं, तो सवाल सिर्फ मूर्ति का नहीं, सोच का है!
" यह वही सोच है जो संविधान की व्याख्या तो याद रखती है, पर संविधान की भावना भूल जाती है। यह वही मानसिकता है जो “न्याय” के नाम पर बहस तो करती है, पर समानता के नाम पर चुप रह जाती है "
क्या यह राजनीति है ? बिल्कुल !
पर यह उस सस्ती राजनीति से भी नीचे की श्रेणी की राजनीति है, जहां विचारधारा की जगह अहंकार, और संविधान की जगह स्वार्थ खड़ा है।
मन में कुछ सवाल है किसी के पास अगर जवाब हो तो जरूर दीजिए ...
- “अंबेडकर की मूर्ति से डरने वाले, संविधान की आत्मा से कैसे जुड़ पाएंगे”
- हाई कोर्ट के गलियारे जहां न्याय की गूंज होनी चाहिए, वहां अब बहस है कि मूर्ति कहां रखी जाए !
- अगर अधिवक्ता खुद ही संवैधानिक प्रतीकों से असहज महसूस करने लगें, तो फिर न्याय की कुर्सी से उम्मीद कैसी !
- बाबासाहेब ने कहा था,“संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर उसे चलाने वाले लोग बुरे होंगे तो वह भी बुरा साबित होगा ! ”
- आज सवाल सिर्फ एक प्रतिमा का नहीं, बल्कि संविधान की प्रतिष्ठा बनाम व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का है !
- कानूनी वकालत के इस अखाड़े में अब जनता देख रही है,कौन संविधान का सच्चा शिष्य है और कौन उसके नाम पर अपना खेल खेल रहा है !
शायद यह वक्त है जब ये वाक्य अदालत के द्वार पर फिर से लिखा जाना चाहिए,पत्थर पर नहीं, अंतरात्मा पर।
0 Comments