विकास की चमचमाती तस्वीरों के पीछे धीरे-धीरे भ्रष्टाचार की फफूंद जमती जाती है...
विकास की चादर तले पलता भ्रष्टाचार का राक्षस !
जब कोई घाव चुपचाप सड़ता है तो उसका संक्रमण एक दिन शरीर को खोखला कर देता है — यही कहानी है हमारे सिस्टम की, जहां विकास की चमचमाती तस्वीरों के पीछे धीरे-धीरे भ्रष्टाचार की फफूंद जमती जाती है। सरकारी योजनाओं के उद्घाटन, भूमिपूजन और बजट घोषणाओं के शोर में यह सुनाई ही नहीं देता कि पैसा कहां जा रहा है और किसकी जेब भर रहा है।
लेकिन इतिहास गवाह है कि भ्रष्टाचार का गुब्बारा अनंत काल तक नहीं फूलता। जब यह फटता है, तो विकास के नाम पर किए गए ‘प्रगति कार्यों’ की आड़ में छिपी लूट सामने आती है। और तब न केवल व्यवस्था की साख पर सवाल उठते हैं, बल्कि आम जनता का भरोसा भी चकनाचूर हो जाता है।
दरअसल, जब सिस्टम ही सिस्टम से भ्रष्ट हो, तो एक आम नागरिक को न गड़बड़ी की भनक लगती है, न उसे आवाज़ उठाने का मौका मिलता है। टेंडर से लेकर ट्रांसफर तक और मंजूरी से लेकर मूल्यांकन तक हर चरण पर अगर ‘सौदेबाज़ी’ शामिल हो जाए, तो योजना चाहे कितनी भी जनहितैषी क्यों न हो, उसका हश्र अंततः घोटाले के रूप में सामने आता है।
ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए हैं — चाहे वो जल जीवन मिशन में पाइपलाइन बिछाने का मामला हो या स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के नाम पर सिर्फ पोस्टर और शिलान्यास तक सीमित होती योजनाएं। कहीं भ्रष्ट अधिकारी निर्माण कार्यों में कमीशन खा जाते हैं, तो कहीं ठेकेदार ‘कागज़ों पर’ पुल बना देते हैं जो धरातल पर कभी बनता ही नहीं।
सबसे खतरनाक बात यह है कि यह भ्रष्टाचार अब सतही नहीं, बल्कि संस्थागत होता जा रहा है — जैसे यह सिस्टम का एक अभिन्न हिस्सा बन गया हो। RTI और सोशल मीडिया की निगरानी के बावजूद जब तक जांच एजेंसाएं भी ‘प्रेरित’ होकर काम करेंगी, तब तक बड़े घोटाले ‘दबाए जाते रहेंगे’, जब तक कि कोई विस्फोट न हो जाए।
सवाल यह है कि क्या विकास का पर्याय अब भ्रष्टाचार से जुड़ गया है? क्या चमकते फुटपाथ, नवनिर्मित भवन और बड़े-बड़े प्रोजेक्ट दरअसल उस ‘परदे’ की तरह हैं, जिनके पीछे बैठा भ्रष्टाचार अट्टहास करता है?
समाधान साफ है — जब तक पारदर्शिता, जवाबदेही और जनसहभागिता का तंत्र मजबूती से लागू नहीं होता, तब तक कोई भी सरकार, कितना भी बड़ा विकास क्यों न दिखा दे, वह एक दिन किसी न किसी घोटाले के मलबे में दबकर रह जाएगी।
अंत में, एक सच यह भी है — विकास का असली मूल्यांकन उसकी घोषणा से नहीं, उसकी निष्पक्ष ऑडिट से होता है। वरना जो दीवारें हमने विकास के नाम पर खड़ी की हैं, वे खुद किसी दिन हमारे भरोसे पर ढह सकती हैं।
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