हिंदी के खिलाफ मराठी भाषा विवाद'...
सांस्कृतिक पहचान के नाम पर ठाकरे भाई फैला रहे हैं नफरत का ज़हर !
भारत की विविधता उसकी सबसे बड़ी शक्ति भी है और सबसे बड़ी चुनौती भी। इस विविधता की धड़कन हमारी भाषाओं में बसती है। हिंदी और मराठी — दोनों ही महान भाषाएं हैं, जिनका इतिहास, साहित्य और संस्कृति में योगदान अतुलनीय है। किंतु जब भाषाएं राजनीति की शतरंज पर मोहरे बन जाती हैं, तो संघर्ष जन्म लेता है, और फिर विवाद भाषा का नहीं, वर्चस्व का हो जाता है।
महाराष्ट्र में अभी हाल ही के दिनों में मराठी भाषा को लेकर उपजे विवाद ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि भाषा के नाम पर समाज में वैमनस्य और कटुता फैलाने की कोशिशें क्यों की जाती हैं? भाषाएं, जो संस्कृति, संवाद और समरसता का माध्यम होती हैं, उन्हें राजनीतिक हथियार बनाकर लोगों को बाँटने का प्रयास किया जाना न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है, बल्कि राष्ट्र की एकता के लिए भी घातक सिद्ध हो सकता है।
सरकार की जिम्मेदारी...
इस विवाद को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका बेहद अहम हो जाती है। महाराष्ट्र में मराठी भाषा को लेकर संवेदनशीलता कोई नई बात नहीं है, लेकिन जब इस संवेदनशीलता को उग्रता, घृणा और हिंसा का रूप दे दिया जाता है, तब राज्य की शांति और सामाजिक सौहार्द खतरे में पड़ जाता है। सरकारों को चाहिए कि वे इस तरह के भाषा-आधारित आंदोलनों या बयानों पर तत्काल कठोर रुख अपनाएं। किसी भी समूह को यह छूट नहीं दी जा सकती कि वह भाषा के नाम पर दूसरों की आज़ादी या अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाए। यह संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का घोर उल्लंघन है।
नफरत की राजनीति...
भाषा का विवाद केवल मराठी तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में समय-समय पर तमिल, कन्नड़, बांग्ला, तेलुगु जैसी भाषाओं को लेकर भी देखने को मिलता है। अक्सर ये विवाद भाषायी अस्मिता की रक्षा के नाम पर खड़े किए जाते हैं, लेकिन हकीकत में इनके पीछे राजनीतिक स्वार्थ छिपा होता है। भाषा और क्षेत्रीय पहचान की रक्षा का अर्थ कभी भी यह नहीं हो सकता कि दूसरे समुदायों को नीचा दिखाया जाए या उन्हें अपमानित किया जाए। जब मराठी भाषा को लेकर हिंदी भाषियों या गैर-मराठी लोगों के खिलाफ नारेबाज़ी होती है, तो यह न केवल सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ता है, बल्कि एक तरह की 'भाषायी कट्टरता' को जन्म देता है।
संवैधानिक दृष्टिकोण...
भारत का संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि यह देश बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक है। अनुच्छेद 343 से 351 तक भाषाओं की मान्यता और उनका संरक्षण सुनिश्चित करता है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को स्थान दिया गया है, जिसमें मराठी भी शामिल है। ऐसे में किसी एक भाषा को 'उच्चतर' और दूसरों को 'गौण' बताना संविधान की भावना के विरुद्ध है।
केंद्र एवं राज्य सरकार को इस विवाद से निपटने के लिए निम्नलिखित ठोस कदम उठाने चाहिए-
- भाषा विवाद फैलाने वालों पर सख्त कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए, चाहे वे राजनीतिक नेता हों या सामाजिक संगठन।
- स्कूलों और कॉलेजों में भाषाई सौहार्द के विषय को पाठ्यक्रम में शामिल कर युवाओं में सहिष्णुता का विकास किया जाए।
- प्रत्येक भाषा का समान सम्मान सुनिश्चित करने हेतु सांस्कृतिक कार्यक्रमों और भाषाई मेलों को बढ़ावा दिया जाए।
- मीडिया और सोशल मीडिया पर भाषाई घृणा फैलाने वाली सामग्री को सख्ती से प्रतिबंधित किया जाए।
भाषाएं समाज को जोड़ने का माध्यम हैं, तोड़ने का नहीं। मराठी हो या हिंदी, तमिल हो या पंजाबी—हर भाषा भारत की आत्मा का एक रंग है। सरकारों को यह बात समझनी होगी कि यदि समय रहते इस तरह के विवादों पर नियंत्रण नहीं किया गया, तो इससे देश की एकता और अखंडता पर गंभीर आघात लग सकता है।
इसलिए अब समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारें भाषाई विवादों के प्रति 'शून्य सहिष्णुता नीति' अपनाएं, ताकि भाषाएं अपने मूल उद्देश्य—समाज को जोड़ने—की भूमिका में बनी रहें।
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