हारने के लिए चुनाव लड़ना भी लोकतंत्र के लिए जरूरी !

हर उम्मीदवार अपनी खूबियों और प्रतिद्वंदी की कमियों को सामने रखता है...

हारने के लिए चुनाव लड़ना भी लोकतंत्र के लिए जरूरी !

चुनावी लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्विरोध तरीका इसलिए उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इससे यह जाहिर नहीं हो पता कि सभी मतदाता निर्विरोध चुने गए प्रत्याशी के पक्ष में हैं।अब जैसे, भारी बहुमत से राष्ट्रपति चुनीं गईं प्रथम महिला आदिवासी द्रोपदी मुर्मू को 64 फीसदी वोट मिले हैं। उनके प्रतिद्वंदी पराजित उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को 36 फीसदी मत मिले हैं। यदि मुर्मू निर्विरोध चुनी जातीं तो यह 36 फीसदी असहमति उजागर ही नहीं होती। यशवंत सिन्हा पूर्व आईएएस हैं, सांसद , केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं। अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ राजनीतिक विशेषज्ञ हैं। उन्हें पहले से ही मालूम होगा कि वर्तमान हालातों में उन्हें न केवल हारना है, बल्कि हास्य का पात्र भी बनना पड़ेगा। यही हुआ भी। 

विपक्ष का पूरा साथ न मिलने पर भी उन्होंने राजनीतिक शालीनता और गरिमा का परिचय दिया। सवाल उठते हैं कि ऐसे चुनाव जिनका परिणाम पहले से ही सभी को मालूम है, आखिर पराजित उम्मीदवार को हासिल क्या होता है? क्या यह बेवजह का चुनाव खर्च नहीं है ? चुनाव यानी हर उम्मीदवार अपनी खूबियों और प्रतिद्वंदी की कमियों को सामने रखता है। यशवंत सिन्हा ने भारी भरकम कर्ज में डूृबते भाजपा शासित राज्यों की स्थिति प्रेस कांफ्रेंस के जरिए रखी। भोपाल में उनके सामने ही एक आदिवासी कांग्रेस विधायक उमंग सिंगार ने आरोप लगाया कि भाजपा पक्ष की ओर से उन्हें प्रलोभन दिया जा रहा है कि मुर्मू के पक्ष में मतदान करोगे तो इतने पैसे मिलेंगे । 

सिन्हा ने एक तरह से दावा किया कि वह संविधान को बचाने के लिए खड़े हुए हैं। मुर्मू ने प्रेस से दूरी बनाये रखी, जबकि वह चाहतीं तो एनडीए सरकार का जनहितकारी एजेण्डा सामने रख सकती थीं। सत्तारूढ़ भाजपा पक्ष को भी निर्विरोध निर्वाचन न होने से बहुत बड़ा राजनीतिक फायदा हुआ। उसने कांग्रेस, टीएमसी, सपा, आरजेडी जैसे कई विपक्षी दलों के वोट बैंक में क्रास वोटिंग करा कर उनमें आंतरिक कलक पैदा करा दी। चुनाव हमेशा जीतने के लिए ही नहीं लड़े जाते। यदि ऐसा होता तो भाजपा की पूर्ववती पार्टी जनसंघ 50-60 के दशक में जमानत जब्त होने के बाद भी लड़ती थी, सिर्फ इसलिए कि पहचान बनी रहे। और किसी चुनाव में जब प्रत्याशी की जमानत बच जाती थी तो जनसंघ नेतृत्व गर्व करता था।

यूपीए शासन काल में 2012 में 13 वे राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा-एनडीए को मालूम था कि वे हारेंगे, फिर भी उनकी ओर से पीए संगमा को खड़ा किया गया। यूपीए के प्रणव मुखर्जी को 69 प्रतिशत और पीए संगमा को 31 प्रतिशत मत मिले थे। यानी आज के विपक्ष के उम्मीदवार से भी कम वोट संगमा को मिले थे। उस वक्त भी क्रॉस वोटिंग हुई थी, प्रणव के पक्ष में और वह भी भाजपा शासित राज्य कर्नाटक में। वहां प्रणव को 117 संगमा को 103 वोट मिले थे। उस समय भाजपा -एनडीए के घटक दल जनता दल यूनाइटेड और शिवसेना ने यूपीए उम्मीदवार प्रणव का समर्थन किया था। यानि इतिहास अपने आप को दोहराता रहता है। आज जो हुआ है जरूरी नहीं कि पहली बार हुआ है।

- प्रदीप मांढरे

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