अमृत महोत्सव गणतंत्र वर्ष, निकले अमृत हो राष्ट्र का उत्कर्ष

भारत को नई राजनीतिक सोच और शैली की जरूरत !

अमृत महोत्सव गणतंत्र वर्ष, निकले अमृत हो राष्ट्र का उत्कर्ष

 

भारत आज आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष का गणतंत्र दिवस मना रहा है। इंसान के लिए 75 साल बुढ़ापे की उम्र है, लेकिन देश के लिए परिपक्व होते यौवन का समय माना जाएगा। परंपरागत रूप से झंडा वंदन, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय शौर्य का  प्रदर्शन देख कर लड्डू खाते घर जाने की गणतंत्र संस्कृति पर गहन चिंतन मनन की आवश्यकता है। नया रूप लेते भारत को नई राजनीतिक सोच और शैली की जरूरत है। युवा भारत पुरानी राजनीतिक शैली और नेरेटिव से उब गया है। आजादी से लेकर अब तक गांधी के पक्ष और विरोध की राजनीति ही हो रही है। लोकसभा और विधानसभा की परंपराओं को चुनावी राजनीति में उतारने की जरूरत है। आज देश के निर्माताओं, महानायकों, बलिदानियों, देवी-देवताओं और शहीदों का भी दलगत बटवारा हो गया है। उनके नाम पर हो रही चुनावी राजनीति से राष्ट्र में एकीकरण की नहीं विभाजन की मानसिकता को बढ़ावा मिल रहा है। जो नायक, महानायक राजनीति में नहीं रहे, जो पॉलिटिक्स के नहीं देश के हीरो हैं, उनके नाम का उपयोग चुनावों में प्रतिबंधित होना नए भारत को नई ऊंचाई देगा।

चुनावी राजनीति में साम-दाम-दंड-भेद अपना कर जीतने वाले लोकसभा और विधानसभा के सदस्यों को सदन में मर्यादा का पाठ मिलता है। सदन में किसी भी सदस्य को किसी भी ऐसे व्यक्ति पर आरोप लगाना प्रतिबंधित है जो  सदन में सदस्य नहीं है। इसके पीछे भारतीय संविधान की मूल भावना राइट टू रिप्लाई की अवधारणा है। यह अवधारणा क्या चुनावी राजनीति में नहीं अपनाई जा सकती? किसी भी महापुरुष के नाम का उपयोग चुनावी राजनीति में क्या नहीं रोका जा सकता ? किसी भी राष्ट्र में राष्ट्र नायकों का चुनाव में उपयोग संभवतः नहीं होता। जो राष्ट्र नायक हैं वह देश के लिए पूज्य हैं। लेकिन उनके नाम से वोट मांगना तो उनके अपमान के समान हैं। आजादी के बाद पीढ़ियां बदल गई लेकिन चुनावी राजनीति में गांधी का नाम अभी भी पूरी शिद्दत से चल रहा है। जो महानायक देश के सामूहिक सम्मान का प्रतीक है,  उनका चुनावी उपयोग समाज में उन को कमतर करता है। राजनीति के लिए नेशनल पॉलिसी पर क्या नहीं सोचा जा सकता है। अभी जनप्रतिनिधित्व कानून में जाति, धर्म का उपयोग चुनाव में प्रतिबंधित है। लेकिन जहां देखो वहीं धर्म और  जाति के अलावा कोई राजनीति हो ही नहीं रही है।

75 साल बाद भारत देश के महापुरुषों पर सामूहिक सहमति नहीं है। विचारधारा के नाम पर विनाशधारा कभी देशहित में हो सकती है क्या ? चुनाव अब डिजिटल युग की तरफ जा रहे हैं। चुनाव प्रचार अभियान तो लगभग डिजिटल हो ही गया है। भविष्य में और डिजिटल सुधार होंगे। अमृत महोत्सव में ऐसा अमृत निकलना चाहिए जिससे गणतंत्र मजबूत हो और नया भारत राजनीतिक सोच विचार और शैली में भी नया हो। संघीय शासन व्यवस्था में तकरार और टकराहट  आम बात हो गई है। गणतंत्र दिवस की सांस्कृतिक झांकियों पर भी राज्यों और केंद्र के बीच विवादास्पद स्थिति होना कितना दुखद है ? संघीय ढांचे की ब्यूरोक्रेटिक व्यवस्था को लेकर भी केंद्र और राज्य सरकारों के अलग-अलग विचार हैं। दुनिया जहां डिजिटल हो रही है, वहीं भारत में राजनीति का कामकाज पुरातन ढंग से ही चल रहा  है। देश में मुख्य रूप से कांग्रेस, भाजपा और सत्ता की विचारधारा चल रही है। क्षेत्रीय दल जो आज राज्यों में सरकारे चला रहे हैं वह कहीं ना कहीं कांग्रेस की विचारधारा को ही स्वीकार करते हैं।

 दलबदल और राजनीतिक विवादों ने देश की राजनीति से नैतिकता को लगभग लुप्त कर दिया है। भ्रष्टाचार इस कदर हावी है कि अब भ्रष्टाचार में भ्रष्टाचार की नई शैली पनप रही है। महंगाई, रोजगार, भ्रष्टाचार, विकास नीतियां, आर्थिक नीति, शिक्षा नीति, नारी समानता, राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रीय एकता जैसे राष्ट्र के सामूहिक विषयों पर क्या नेशनल पॉलिसी बनने की कोई संभावना हो सकती है? राजनीतिक बदलाव से बदलने वाली नीतियों की शैली को क्या बदला जा सकता है ? अमृत महोत्सव वर्ष में भी अगर इस दिशा में गहराई से विचार नहीं होगा तो फिर कब होगा? इतने सालों में केंद्रीय स्तर पर कमोबेश कांग्रेस की सरकार चलती रही। 2014 के बाद भाजपा की विचारधारा का शासन आया है। विचारधाराओं की टकराहट  विकास की स्पष्ट नीतियों के लिए हो तो कोई दिक्कत नहीं है। चुनावी राजनीति में विचारधाराओं के नाम पर क्या क्या नही हो रहा है। सदियों की गुलामी और मुगल सल्तनत के कठिन दौर में भी जो भारत खड़ा रहा, वह भारत आज अपनी आन्तरिक समस्याओं से दबा जा रहा है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ही सवालिया निशान खड़े किए जा रहे हैं। संघीय ढांचे को चोट पहुंचाने में किसी को कोई भी गुरेज नहीं होता। राजनीति आजकल चीजों में इस कदर शामिल हो गई है कि राजनीति के अलावा कुछ दिखता ही नहीं है। महंगाई किसी दल का विषय नहीं है। आर्थिक नीतियां और देश का आर्थिक विकास दलीय कैसे हो सकता है। इससे जो भी लाभ या नुकसान होगा वह पूरे देश और देश के नागरिकों को होगा। अब समय गया है कि देश और चुनावी राजनीति को अलग करके देखा जाये। भारत की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि यहां के लोगों की नजर ही राजनीतिक हो गई है। भारत ने विकास के क्षेत्र में दुनिया में अपना स्थान बनाया है। अगर हम सोच लेंगे तो राजनीति की सोच और शैली भी बदल सकते है। फिर सामूहिक प्रयास भारत को विश्व में नया स्थान दिलाएंगे। जनता के लिए सभी निर्वाचित सदस्य काम कर रहे हैं, लेकिन सत्ता और विपक्ष के विवाद में लोकसभा और विधानसभायें  चल ही  नहीं पाती। कानून बिना चर्चा के पास हो जाते हैं। चर्चा ही लोकतंत्र का मूल है। जब यही नहीं हो पाएगा तो फिर सफल लोकतंत्र का हमारा दावा कितना सही होगा।

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