निजीकरण की वास्तविकता

निजीकरण की वास्तविकता

आज सरकार अंधाधुंध निजीकरण की वकालत कर रही है, सरकारी कर्मचारियों के निकम्बे पन की हर जगह चर्चा हो रही है, आइए इस पर विचार करते हैं। दूध में पहले केवल पानी मिलाया जाता था फिर मलाई मारी जाने लगी और अब यूरिया और डिटर्जेंट वाला दूध मिलता है। अपवाद छोड़ दें तो आपके हमारे घर में भी यही दूध आता है और ये दूध सरकारी कर्मचारी नहीं बनाता है और न ही  बेचता है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से अरुणाचल तक ट्रेनों में यूरिया वाली जहरीली चाय कोई सरकारी कर्मचारी नहीं बनाता और न ही बेचता है। 

200 घन फ़ीट का दावा करके 150 घनफीट बालू , गिट्टी आपके तथा हमारे घर में कोई सरकारी कर्मचारी नहीं पहुंचाता सड़कें कोई सरकारी कर्म चारी अथवा सरकारी ठेकेदार नहीं बनाता पेट्रोल पंप पर मिलावटी तेल भी कोई सरकारी कर्मचारी नहीं बेचताऔर न ही डीजल, पेट्रोल मे मिलावट करता है। पेट्रोल पंप पर मिलावट के विरुद्ध कार्यवाही करने वाले सरकारी अधिकारी मंजूनाथ षणमुगम जैसो की हत्या करनेवाला पेट्रोल पंप का मालिक सरकारी कर्मचारी नहीं होता। 

बड़े बड़े पंचसितारा होटलों में हर दिन पैसा सोखने वाले, निजी स्कूलों का संचालन कर करोड़ों, अरबों लूट लेने वाले, निजी अस्पतालों मे स्मार्ट कार्ड और आयुष्मान जैसी योजनाओं से फर्जी वाड़ा करने वाले, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं होते। आए दिन हवाला जैसे घोटालों मे सरकारी कर्मचारियों का हाथ नहीं होता, नकली दवाई बनानेबेचने वाले, नकली शराब बनानेबेचने वाले, उपभोक्ता वस्तुओं पर मिलावट करने वाले, सरकारी कर्मचारी नहीं होते। करोड़ों रुपये लेकर देश छोड़ कर भाग जाने वाले माल्या, नीरव मोदी या मेहुल चौकसी  में से कोई भी सरकारी कर्मचारी नहीं था। 

बिना सोचे समझे निजीकरण के पैरोकार और सरकारी कर्मचारी को नकारा साबित करने वाले लोग क्या कभी इन लोगों से कोई प्रश्न कर पाएंगे? जब देश का पैसा लूटकर पूंजीपति बने इन पूंजीपतियों की आम जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है, तो निजीकरण कैसे सही होगा? निजीकरण के बाद छल से खुद को दिवालिया घोषित कर भाग जाने वालों से जनता के पैसे कौन वापस दिलायेगा? यदि निजीकरण इतना ही सफल है ,तो उस दौर में जब स्मार्टफोन की सबसे ज्यादा आवश्यकता थी तब माइक्रोमैक्स और karbonn जैसी मोबाइल कंपनियां क्यों फ्लॉप हो गई? 

जब हवाई यात्रा लोगों में लोकप्रिय हो चुकी है तब किंगफिशर व जेट एयरवेज जैसी कंपनी दिवालिया कैसे हो गयी ? सोचिए जब इन कंपनियों का ये हश्र हो सकता है। तो कल सरकारी उपक्रमों की जगह लेने वाली कंपनियों का भी तो हो सकता है। अंततः इसका दुष्परिणाम किसे भुगतना होगा? बड़े गंभीर प्रश्न हैं और ऐसे प्रश्नों की सूची काफी लंबी है। बीते समय की बात है - भारत में गरीबी चरम पर थी लेकिन बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। इतने सारे सरकारी उद्यम खड़े किए गए आज बताया जा रहा है कि हम 500 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने जा रहे हैं। 

पिछले साल HPCL क़ो बेच दिया गया, वो तो गनीमत रही कि ONGC को दिया गया। और अब BPCL को बेचने की बात चल रही है जबकि BPCLने पिछले वित्तीय वर्ष में 2600 करोड़ का लाभ कमाया है। अभी बैंकों के निजीकरण की बात की जा रही है जबकि यह सत्य है कि आज जितने भी सरकारी विभाग हैं उन सब मे अभी भी बैंको पर आम जन का पूरा भरोसा है, अगर बैंको की स्थित कमजोर दिख रही है तो उसका कारण बैंक कर्मचारी _अधिकारी नहीं बल्कि सरकार की वसूली नीति ही जिम्मेवार है, अगर बैंको के करोड़ों रुपए जो NPA मे वर्गीकृत हैं, उनकी वसूली में सरकार सहयोग करे तो न सिर्फ बैंको की बल्कि पूरे देश की अर्थ व्यवस्था में उछाल आ सकता है। 

अपवाद स्वरूप अगर एक_दो प्रतिशत सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते या भ्रष्टाचार मे लिप्त हैं तो उनके लिए विभागीय जांच का प्रावधान है, अटैचमेंट, सस्पेंशन, टर्मिनेशन, जेल आदि की सारी व्यवस्थाएं हैं, इन सबको दुरुस्त न करके पूरे सरकारी विभागों पर ही प्रश्न चिन्ह लगाना कौन सी बुद्धिमानी है ? स्थिति समझ से परे है कि - सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को एक ही बार में खत्म कर देने में समझदारी है या फिर प्रतिदिन सोने के अंडे प्राप्त करने में? 

जबरन निजीकरण कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है और इसके गंभीर दुष्परिणाम आम जनता को भुगतने के लिए छोड़ दे रही है। आज के समय के सबसे गंभीर चिंतन वाले विषय हैं ये, हम उम्मीद करते हैं कि सच्चे देश भक्त इस विषय पर जरूर कुछ न कुछ करेंगे। आज हम सभी निजीकरण के विरोध में लाम बद्ध होना जरूरी  है। इस निजीकरण के दानव ने हमारे कई श्रेष्ठ प्रतिष्ठान लील चुके हैं।

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