हाथरस रेपकेस : अमानवीय सदमा

हाथरस रेपकेस : अमानवीय सदमा

गैंगरेप और भीषण यातनाओं का शिकार हुई यूपी के हाथरस जिले की 19 साल की दलित लड़की ने 15 दिनों तक मौत से जूझने के बाद मंगलवार को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में दम तोड़ दिया। एक दिन पहले ही उसे गंभीर स्थिति में अलीगढ़ के जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज से यहां लाया गया था। इस मौत ने जहां एक बार फिर पूरे देश की संवेदना को झकझोर दिया है, वहीं गैंगरेप जैसे अपराध से निपटने में प्रशासनिक और पुलिस तंत्र की घोर विफलता को भी उजागर किया है। इस घटना के बाद स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शोक व्यक्त करते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि इसके सभी दोषियों के लिए कठोरतम सजा सुनिश्चित की जाए। 

मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने मामले की जांच के लिए एसआईटी भी गठित कर दी है। जांच-पड़ताल और सजा की जरूरत से तो कोई भी होशमंद इंसान इनकार नहीं करेगा, लेकिन हाथरस केस की खासियत यह है कि कुछ लोग बाकायदा एक मंच का बैनर लेकर आरोपियों को बचाने की कोशिश करते नजर आए। इस पर चर्चा बाद में, लेकिन इससे पहले यह सवाल कि जांच और सजा के लिए बनाए गए लंबे-चौड़े तंत्र का संभावित अपराधियों में कोई खौफ क्यों नहीं दिख रहा है? दिल्ली के निर्भया मामले के बाद उमड़े जनाक्रोश के दबाव में जो बदलाव कानूनों में किए गए उनका भी समाज पर कोई खास असर नहीं देखने को मिल रहा।

कुछ असर हुआ है तो सिर्फ इतना कि बलात्कार के जघन्य मामलों में अपराधियों को तुरत-फुरत मृत्युदंड देने की मांग हर संभव मंच से उठने लगी है। इसका नतीजा हैदराबाद पुलिस मुठभेड़ के रूप में देखने को मिला, जहां बलात्कार के संदिग्ध अपराधियों को उससे भी ज्यादा संदिग्ध ढंग से मौत के घाट उतार दिया गया। समाज, पुलिस और कानून का कुछ खौफ संभावित अपराधियों में हो, इसके लिए सुनसान जगहों पर पुलिस की धमक, घटना घटित होने के बाद चुस्त कार्रवाई और पक्की जांच के जरिये तय प्रकिया के तहत अपराधियों को अदालत से जल्दी सजा होनी चाहिए, जिसके लिए न समाज में कोई आग्रह न दिखता है, न सरकारी तंत्र में।

इसके उलट अपराधियों की जाति और धर्म के आधार पर उनके बचाव में खड़े होने की प्रवृत्ति जरूर दिखने लगी है जो कठुआ रेप कांड के बाद अब हाथरस कांड में भी सामने आई है। ऐसी सोच के रहते क्या भारत कभी सभ्य समाज बन पाएगा? बहरहाल, एसआईटी जांच के नतीजों का सबको इंतजार रहेगा, मगर अभी ऐसी कई बातें प्रकट हैं जो पुलिस-प्रशासन को संदेह के घेरे में खड़ा करती हैं। मामले की पहली शिकायत से लेकर रात के अंधेरे में बिना पारिवारिक भागीदारी के पीड़िता का अंतिम संस्कार कर देने तक उसकी भूमिका पर सवाल ही सवाल हैं। ऐसी दीदादिलेरी स्थानीय तंत्र अकेले दम पर नहीं दिखा सकतीा लिहाजा संदेह के छींटे अन्य दिशाओं में भी जा रहे हैं। उम्मीद करें कि पीएम के निर्देश और सीएम की तत्परता से इन सवालों के अधिक भरोसेमंद जवाब सामने आएंगे।

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