संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल नेटफ्लिक्स सीरीज़ शुरू और क्लाइमेक्स से पहले ही सीज़न कैंसल !
सवालों के हाफ़ इंजीनियर, जवाबों के स्थायी छुट्टीधारी हैं राहुल गांधी !
संवैधानिक संस्थाओं पर सवाल उठाना लोकतंत्र में स्वास्थ्यकर व्यायाम है लेकिन राहुल गांधी ने इसे योगा से ज़्यादा ज़ुम्बा बना दिया है: ढेर सारा हिलना-डुलना, लेकिन अंत में नतीजा वही ! संसद हो, चुनाव आयोग हो, न्यायपालिका हो या मीडिया—राहुल गांधी सवालों का पिटारा खोलते हैं, लेकिन जैसे ही जवाब का वक्त आता है, उनका राजनीतिक गूगल मैप “रूट नॉट फाउंड” दिखा देता है।
उनकी राजनीति वैसी है जैसे कोई किसान हल तो चलाए, लेकिन बोआई से पहले कह दे, "चलो छोड़ो, इस बार फसल इंस्टाग्राम पर ही काटेंगे।"
जनता भी सोच में पड़ जाती है क्या ये सवाल सुधार के लिए हैं या सिर्फ़ अगले सोशल मीडिया रील के लिए?
कहने को तो वे लोकतंत्र के रक्षक हैं, पर कई बार उनके बयानों से यही आभास होता है कि वे रक्षात्मक बल्लेबाज से ज़्यादा रिटायर हर्ट प्लेयर हैं।
राहुल गांधी की खासियत है एक तगड़ा सवाल उछालना और फिर अगले दिन उस पर “टाइपिंग…” लिखकर चुप हो जाना।
लोकतंत्र में विपक्ष की जिम्मेदारी सरकार से जवाब मांगना है—पर जब विपक्ष खुद अपने सवालों के जवाब से कतराने लगे, तो यह सिर्फ़ राजनीति नहीं, एक राजनीतिक स्केच शो बन जाता है… जिसमें मुख्य किरदार हमेशा यही होता है "सवाल मैं पूछूँगा, जवाब कोई और ढूंढे!"
सवाल उठाओ, फिर भूल जाओ ही है राहुल गांधी की राजनीतिक जादूगरी
राजनीति में नेताओं के पास कई हुनर हैं कुछ काम करने में माहिर हैं, कुछ काम रोकने में , और कुछ सवाल उठाकर खुद ही उन सवालों से बचने में। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तीसरे खांचे में आते हैं।
संवैधानिक संस्थाओं पर उनकी राय मौसम की तरह बदलती है—कभी बादल घने, कभी साफ़ आसमान। संसद, चुनाव आयोग, न्यायपालिका, मीडिया… कोई भी संस्था उनके सवालों की बौछार से नहीं बची। लेकिन जैसे ही जवाब या ठोस रुख की बारी आती है, अचानक ये बौछार रिमझिम में बदल जाती है—और फिर गायब।
दरअसल, राहुल गांधी का राजनीतिक सफ़र कुछ यूं है जैसे कोई क्रिकेटर हर गेंद पर अपील करे, लेकिन जब अंपायर रिव्यू मांगे तो कह दे, "अरे रहने दीजिए, ये तो बस मज़ाक था।"जनता और पार्टी कार्यकर्ता समझ ही नहीं पाते ये सवाल गम्भीर थे या सिर्फ़ ट्रेंडिंग हैशटैग के लिए?
सवाल उठाना लोकतंत्र में बिल्कुल जायज है पर सवालों को आधे में छोड़ देना वैसा ही है जैसे डॉक्टर ऑपरेशन शुरू करके बीच में कह दे, "अभी मूड नहीं है, बाकी अगली बार करेंगे।"
इससे न सिर्फ़ आपकी साख कमजोर होती है, बल्कि जनता को यह भी लगने लगता है कि असली मकसद सुधार नहीं, बल्कि सुर्खियां बटोरना है।
और हाँ, विरोध करना राजनीति का हिस्सा है—but लगातार खुद को अपने ही बयानों से खंडित करना यह नया स्टाइल है, जो शायद सिर्फ़ राहुल गांधी ही इतनी लगन से निभा सकते हैं।
कह सकते हैं भारत में संवैधानिक बहस को राजनीतिक स्टैंड-अप कॉमेडी में बदलने की कला, इनकी विशेष उपलब्धि है।
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